अरंडी उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक
अरंड (रिसिनस कम्यूनिस एल.) ये महत्तवपूर्ण औद्यौगिक तेल प्राप्त होता है। अरंड की खली अच्छी जैविक खाद है। रेषम के कीडे़ अरंड की पत्तियां खाते है इसलिए एरीसिल्क उत्पादक क्षेत्रों में अरंड के पौधे एरीसिल्क कृमियों के पोषण के लिए लगाए जा सकते हैं। वर्ष 2005-06 में देष में 8.64 लाख हैक्टर क्षेत्र से अरंड की 9.90 लाख टन उपज मिली और उत्पादनक्षमता 1146 कि.ग्रा./है. पाई गई।
अरंडी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान (Castor Cultivation Suitable Soil, Climate and Temperature)
- इसकी खेती किसी भी उपजाऊ मिट्टी में की जा सकती है |
- इसकी खेती में भूमि उचित जल निकासी वाली अवश्य हो |
- अरंडी की खेती बंजर भूमि में कर सकते है |
- इसकी खेती क्षारीय भूमि में बिल्कुल न करे |
- भूमि का P.H. मान 5 से 6 के मध्य होना चाहिए |
- इसकी खेती किसी भी जलवायु में की जा सकती है, किन्तु शुष्क और आद्र जलवायु में इसके पौधे अच्छे से विकास करते है |
- सर्दियों में गिरने वाला पाला पौधों को कुछ हद तक हानि पहुँचाता है |
- आरम्भ में पौधों को विकास करने के लिए सामान्य तापमान की आवश्यकता होती है |
- फसल पकने के दौरान पौधों को उच्च तापमान की आवश्यकता होती है |
जलवायु
सूखे और गरम ऐसे क्षेत्रों में इसकी फसल अच्छी होती है जहां अच्छी तरह से वितरित 500-750 मि.मी.वर्षा हो
। फसल1200से 2
100 मी. के अक्षांष पर भी ली जा सकती है। पूरी फसल के दौरान कुछ अधिक तापमान (200-260सें.) और कम आर्द्रता की आवष्यकता होती है।
मिट्टी
अच्छी जल निकासी वाली लगभग सभी तरह की मिट्टी में अरंड की खेती होती है।
अरंडी की उन्नत किस्में (Castor Improved Varieties)
47-1(ज्वाला), ज्योती, क्र्रान्ती, किरण, हरिता, जीसी 2, टीएमवी-6, किस्में तथा डीसीएच-519, डीसीएच-177, डीसीएच-32, जीसीएच-4, जीसीएच-5, जीसीएच-6, जीसीएच-7, आरएचसी-1, पीसीएच-1, टीएमवीसीएच-1, संकर लें।
व्यापारिक तौर पर की जाने वाली अरंडी की खेती के लिए बाज़ारो में कई तरह की उन्नत किस्में देखने को मिल जाती है | यह सभी किस्में दो प्रजातियों में विभाजित की गयी है, जिसमे साधारण और संकर प्रजाति शामिल है |
प्रजाति | उन्नत किस्म | तेल की मात्रा | उत्पादन समय | उत्पादन |
साधारण प्रजाति | ज्योति | 50 प्रतिशततक | 140 से 160 दिनमें | 14 से 16 क्विंटल प्रतिहेक्टेयर |
अरुणा | 52 प्रतिशततक | 170 दिन में | 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर | |
भाग्य | 54 प्रतिशततक | 150 दिनमें | 22 से 25 क्विंटलप्रति हेक्टेयर | |
क्रांति | 50 प्रतिशततक | 180 दिनमें | 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर | |
ज्वाला 48-1 | 49 प्रतिशततक | 160 से 190 दिनमें | 16 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर | |
संकर प्रजाति | आर एच सी 1 | 50 प्रतिशततक | 100 दिनमें | 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर |
जी सी एच 4 | 48 प्रतिशततक | 90 से 110 दिनमें | 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर | |
डी सी एस 9 | 48 प्रतिशततक | 120 दिनमें | 25 से 27 क्विंटलप्रति |
फसल पद्धति
अरंड की एकल फसल या मिश्रित फसल ली जा सकती है।
अन्तःफसल पद्धतियाँ
अरंड के साथ अरहर (1:1), लोबिया (1:2), उड़द (1:2), मूंग (1:2), ग्वार की फली (1:1), मूँगफली (1:5-7), हल्दी/अदरक (1:5), सोयाबीन (4:1), कुलथी (1:6-8) कतारों में बताए गए अनुपात में लें।
फसल क्रम /फसल चक्र
अरंड-मूँगफली, अरंड-सूरजमुखी, अरंड-बाजरा, अरंड-रागी, अरंड-अरहर, अरंड-ज्वार, बाजरा-अरंड, ज्वार-अरंड, अरंड-मॅूंग, अरंड-तिल, अरंड-सूरजमुखी, सरसों-अरंड, अरंड-बाजरा-लोबिया।
जुताई
मानसून के पहले आने वाली वर्षा के तुरन्त बाद हल चलायें और नुकीले पाटे से 2-3 बार पाटा फेरें। बुआई का समय- दक्षिण पष्चिम मानसून की वर्षा के तुरन्त बाद बुआई करें । रबी की बुआई सितम्बर-अक्टूबर और गरमी की फसल की बुआई जनवरी में करें।
बीजों की गुणवत्ता
प्राधिकृत एजेंसी से अच्छे संकर /किस्मों के बीज खरीदें। इनको 4-5 वर्षो तक काम में लाया जा सकता है।
कितना बीज चाहिये बीज दर और दूरी
वर्षा काल में 90 से 60 से.मी. और सिंचित फसल के लिए 120 से 60 सेमी की दूरी रखें। वर्षाकाल में खरीफ में बुआई में देरी हो, तब दूरी कम रखें। बीजों के आकार के आधार पर 10-15 कि.ग्रा./है. बीज दर पर्याप्त है।
किसान भाइयों अरंडी की फसल के लिए बीज की मात्रा , बीज क आकार और बुआई के तरीके और भूमि के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। फिर भी औसतन अरंडी की फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। छिटकवां बुआई में बीज अधिक लगता है यदि इसे हाथ से एक-एक बीज को बोया जाता है तो प्रतिहेक्टेयर 8 किलोग्राम के लगभग बीज लगेगा। किसान भाइयों को चाहिये कि अरंडी की अच्छी फसल लेने के लिए उन्नत किस्म का प्रमाणित बीज लेना चाहिये। यदि बीज उपचारित नहीं है तो उसे उपचारित अवश्य कर लें ताकि कीट एवं रोगों की संभावना नहीं रहती है। भूमिगत कीटों और रोगों से बचाने के लिए बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रतिकिलोग्राम पानी से घोल बनाकर बीजों को बुआई से पहले भिगो कर उपचारित करें।
बीज उपचार
बीज का उपचार थीरम या कैप्टन से 3 ग्राम/कि.ग्रा. या कार्बेन्डेलियम 2 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से करें और ट्राइकोडरमा विरिडे से 10 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से करें और 2.5 कि.ग्रा. की मात्रा 125 कि.ग्रा. खाद/है. की दर से मिट्टी में मिलाएं।
बुआई की विधियाँ और साधन
साधरणतः देषी हल चलाने के बाद अरंड की बुआई करें। उपलब्ध होने पर फर्टीड्रिल, पोरा टचूब, फैस्को हल और एकल कतार बीज ड्रिल से उचित नमी के स्थान पर बीज रखें। बुआई से पहले 24-28 घण्टे तक बीजों को भिगो कर रखें। लवणीय मिट्टी हो तो बुआई से पहले बीजों को 3 घण्टे तक 1 प्रतिषत सोडियम क्लोराइड में भिगोयें।
खाद एवं उर्वरक
10-12 टन खाद/है. मिट्टी में मिलाए। अरंड के लिए सुझाए गए उर्वरक (कि.ग्रा./है.) नाइट्रोजन फास्फोरस पोटाष इस तरह है- वर्षाकाल में 60-30-0, एवं सिंचित अवस्था में 120-30-30।
सिंचाई
जब अधिक समय तक सूखा हो तब फसल वृद्धि की अवस्था में पहले क्रम के स्पाइकों के विकास या दूसरे क्रम के स्पाइकों के निकलने/विकास के समय एक संरक्षी सिंचाई करें जिससे उपज अच्छी होती है। बूँद -बूँद सिंचाई देने से 80 प्रतिषत तक पानी को भाप बन कर उड़ने से रोका जा सकता है।
पाले सें बचाव इस तरह करें
अरंडी की फसल के लिए पाला सबसे अधिक हानिकारक है। किसान भाइयों को पाला से फसल को बचाने के लिए भी इंतजाम करना चाहिये। जब भी पाला पड़ने की संभावना दिखाई दे तभी किसान भाइयों को एक लीटर गंधक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रतिहेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करा चाहिये। यदि पाला पड़ जाये और फसल उसकी चपेट में आ जाये तो 10 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से यूरिया के साथ छिड़काव करें। फसल को बचाया जा सकता है।
खरपतवार नियंत्रण और निंदाई-गुड़ाई
वर्षा के क्षेत्रों में बैलों से चलने वाले ब्लेड हैरो द्वारा 2-3 बार निराई-गुड़ाई, बुआई के 25-30 दिन के बाद से ही की जानी चाहिए। इसके अलावा हाथ से भी खरपतवार साफ करें। सिलोषिया अर्जेन्टिया नाम द्विबीजपत्रीय खरपतवार सितम्बर से जनवरी तक बड़ी मात्रा में दिखाई देते हैं इसे फूल आने से पहले हाथ से जड़ से उखाड़ दें। सिंचित फसल में फ्लूक्लोरेलिन या ट्राईफ्लोरेलिन का एक कि.ग्र.स.अ./है. अंकुरण के बाद या अंकुरण से पहले एलाक्लोर 1.25 कि.ग्रा.स.अ./है. मिट्टी में मिलाएं।
मुख्य रोग और उनका प्रबंध
फ्युजेरियम उखटा-
बीजपत्र की अवस्था में पौधे धीरे-धीरे पीले होकर रोगी दिखाई देने लगते हैं। ऊपरी पत्तियाँ और शाखाएँ मुड़ कर मुरझा जाती है। सहनशील और प्रतिरोधी किस्में जैसे डीसीएस-9, 48-1(ज्वाला), हरिता, जीसीएच-4, जीसीएच-5, डीसीएच-5, डीसीएख्-177 की बुआई करें। कार्बेंन्डजियम 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से या (कार्बेन्डेजियम 1 ग्रा./ली. में 12 घंटे के लिए भिगा कर)/ टी.विरिडे 10 ग्रा./कि.ग्रा. से बीजों का उपचार और 2.5 कि.ग्रा./है. 12.5 कि.ग्रा. खाद के साथ मिट्टी में मिलाएं। लगातार खेती न करें। बाजरा/रागी या अनाज के साथ फसल चक्र लें।
जड़ो का गलना/काला विगलन
पौधों में पानी की कमी दिखाई देती है । ऊपरी जड़ें सूखी गहरे दिखाई देने लगती है। और जड़ की छाल निकलने लगती है। फसलों के अवषेषों को जला कर नष्ट कर दें। अनाज की फसलों के साथ फसल चक्र लें। प्रतिरोधी किस्में जैसे ज्वाला (48-1)¬ और जीसीएच-6 की खेती करें। टी.विरिडे 4 ग्रा./कि.ग्रा. बीज या थिरम/कैप्टन से 3 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से बीजों का उपचार करें।
अल्टेरनेरिया अंगमारी
बीजपत्र की पत्तियों पर हल्के भूरे गोल धब्बे दिखाई देते हैं और परिपक्व पत्तियों पर सघन छल्लों के साथ नियमित धब्बे होते है। बाद में यह धब्बे मिलने से अंगमारी होती है और पत्तियाँ झड़ जाती है। रोगाणुओं के सतह पर जमा होने से अपरिपक्व कैप्सूल भूरे से काले होकर गिर जाते है। परिपक्व कैप्सूल पर काली कवकीय वृद्धि होता है।थिरम/कैप्टन से 2-3 ग्रात्र/कि.ग्रा. बीज की दर से बीजों का उपचार करें। फसल वृद्धि के 90 दिनों से आरंभ कर आवष्यकता के अनुसार 2-3 बार 15 दिनों के अंतराल से मैन्कोजेब 2.5 ग्रा./ली. या कॉपर ऑक्सीक्लोराईड 3 ग्रा./ली. का छिड़काव करें। पाउडरी मिल्डयू- पत्तियों की निचली सतह पर सफेद पाउडर की वृद्धि होती है। पत्तियाँ बढ़नें से पहले ही भूरी हो कर झड़ जाती है।बुआई के तीन महीने बाद से आरंभ कर दो बार वेटेबल सल्फर 0.2 प्रतिषत का 15 दिनों के अंतराल से छिड़काव करें।
ग्रे रॉट/ग्रे मोल्ड
आरंभ में फूलों पर छोटे काले धब्बे दिखाई देते है जिसमें से पीली द्रव रिसता है जिससे कवकीय धागों की वृद्धि होती है जो संक्रमण को फैलाते है। संक्रमित कैप्सूल गल कर गिरते है। अपरिपक्व बीज नरम हो जाते हैं और परिपक्व बीज खोखले, रंगहीन हो जाते हैं। संक्रमित बीजों पर काली कवकीय वृद्धि होती है।सहनषील किस्म ज्वाला (48-1) की खेती करें। कतारों के बीच अधिक दूरी 90ग60 से.मी. रखें। कार्बेन्डेजियम या थियोफनाते मिथाइल का 1 ग्रा./ली. से छिड़काव करें। टी.विरिडे और सूडोमोनास फ्लूरोसेनसस का 3 ग्रा./ली. से छिड़काव करें। संक्रमित स्पाइक/कैप्सूल को निकाल कर नष्ट कर दें। बारिष के बाद 20ग्रा./है. यूरिया फसल पर बिखराने से नए स्पाइक बनते है।
क्लैडोस्पोरियम कैप्सूल विगलन
कैप्सूल परिपक्व होने के समय आधार पर गहरे हरे घाव विकसित होते हैं। कैप्सूल गल कर मध्यम काले हो जाते हैं। संक्रमण भीतर तक फैलने से बीज भी प्रभावित होते हैं जिन पर काली हरी सूती वृद्धि दिखाई देती है। डायथेन-जेड-78 या मैन्कोजेब का छिड़काव करें। कटाई उचित समय पर, स्पाइकों के पीले होने पर करें ।
मुख्य कीट और उनका प्रबंध
सेमीलूपर- पत्तियाँ झड़ने से हानि होती है। पुराने लारवें तने और षिराएं छोड़ कर पौधे के सभी भाग खा लेते है।फसल वृद्धि की आरंभिक अवस्था में जब 25 प्रतिषत से अधिक पत्तियाँ झड़ने लगें तब ही इल्लियों को हाथ से निकाल कर फेंक दें।
तम्बाकू की इल्लियाँ- अधिकतर हानि पत्तियाँ झड़ने से होती है। खराब हुई पत्तियों के साथ छोटे अण्डों और नष्ट हुई पत्तियों के साथ इल्लियों को एकत्र कर नष्ट कर दें।जब 25 प्रतिषत से अधिक पत्तियोंपर नुकसान हो तब क्लोरोपाइरिफोस 20 ई.सी. 2 मि.ली. प्रति लीटर या प्रोफेनोफास 50 ई.सी. 1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें।
कैप्सूल बेधक – इल्लियाँ कैप्सूल को बेधती हैं। कैप्सूल में जाली और उत्सर्जित पदार्थ देखा जा सकता है। कीटनाषियों का कम उपयोग करें। 10 प्रतिषत कैप्सूल नष्ट होने पर क्विनालफास 25 ई.सी. 1.5 मि.ली./ली. पानी का छिड़काव करें। अधिक संक्रमण हो तबएसिफेट 75 प्रतिषत एस.पी. का 1.5 ग्रा./ली. पानी का छिड़काव करें।सफेद मक्खी के लिये ट्रायजोफास 40 ई.सी. 2 मि.ली. / ली. पानी का छिड़काव करें।
कटाई और गहाई –
बुआई के बाद 90-120 दिनों के बाद जब कैप्सूल का रंग भूरा होने लगे तब कटाई करें। इसके बाद 30दिनों के अंतराल से क्रम से स्पाइकों की कटाई करें। कटाई कर स्पाइकों को धूप में सुखाये जिससे गहाई में आसानी होती है। गहाई छडि़यों से कैप्सूलों को पीट कर या ट्रैक्टर या बैलों से या मषीन से करें।
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