तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक : तिलहन फसलों में तिल का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। Advanced Production Technology of Sesame तिल का उत्पादन साल में तीन बार लिया जा सकता है। तिल किसानों के लिए नकदी फसल है जिसकी बाजार मांग हर समय बनी रहती है। सर्दियों में तो इसकी मांग सबसे अधिक रहती है। तिल से कई प्रकार के मिठाई, गजक, लड्डू आदि बनाया जाता है। तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक Advanced Production Technology of Sesame तिल उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक तिल मिटटी उर्वरक जलवायु रोग प्रबंधन फसल चक्र इसके अलावा तिल से तेल निकाला जाता है जिसकी बाजार मांग सबसे अधिक है।
इसे देखते हुए किसानों के लिए तिल की खेती काफी लाभकारी है। यदि कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो किसान तिल का बेहतर उत्पादन प्राप्त कर ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं। आइए आज हम ट्रैक्टर जंक्शन के माध्यम से किसानों को तिल की खेती की जानकारी दे रहे हैं। तो आइए जानते हैं तिल की खेती की उन्नत तकनीक के बारे में।
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उन्नत तिल खाने से होने वाले फायदें / लाभ
- तिल के बीज में उच्च गुणवत्ता का प्रोटीन एवं आवश्यक अमीनो अम्ल खासकर मिथियोनिन मौजूद है जो वृद्धावस्था को रोकने में सहायक है।
- तिल में लिनोलिक अम्ल, विटामिन ई,ए,बी,बी-2 एवं नायसिन खनिज एवं केल्सियम तथा फास्फोरस पाया जाता है जो कि स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
- तिल के तेल में 85 प्रतिशत असंतृप्त फैटी एसिड है जिससे कोलेस्ट्रॉल को घटाने की तथा हृदय की कोरोनरी रोग रोकने में सहायक है।
- तिल के तेल को तेलों की रानी (क्वीन ऑफ ऑयल्स) कहा जाता है क्योंकि इसमें त्वचा रक्षक तथा अन्य प्रसाधन के गुण मौजूद है।
- तिल दांत के रोगों में लाभकारी है। रोज सुबह 10 ग्राम काला तिल चबा-चबाकर अच्छी तरह खाने से मसूढ़े स्वस्थ एवं दांत मजबूत होते हैं।
- तिल से आंखों की रोशनी बढ़ाने, कफ, आर्थराइटिस, सूजन, दर्द पीड़ा को कम करता है।
- तिल के तेल की मालिश से मुंहासे, चर्म रोग में लाभ मिलता है। तेल में नीम की पत्तियां मिला कर प्रयोग करने से चर्म रोग दूर होता है।
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तिल की खेती के लिए जलवायु व भूमि का प्रकार
तिल के लिए शीतोषण जलवायु अच्छी रहती है। ज्यादा बरसात या सूखा पडऩे पर इसकी फसल अच्छी नहीं होती है।
वहीं बात करें भूमि की तो इसके लिए हल्की भूमि तथा दोमट भूमि अच्छी होती है। इसके अलावा इसे बलुई दोमट से काली मिट्टी में भी उगाई जाती है।
हल्की रेतीली, दोमट भूमि तिल की खेती हेतु उपयुक्त होती हैं। खेती हेतु भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7.5 होना चाहिए। भारी मिटटी में तिल को जल निकास की विशेष व्यवस्था के साथ उगाया जा सकता है? तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक Advanced Production Technology of Sesame उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक तिल मिटटी उर्वरक जलवायु रोग प्रबंधन फसल चक्र?
उन्नत तिल की बेहतरीन किस्मों का विवरण
तिल की खेती के लिए कई उन्नत किस्में हैं जिनसे अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। ये उन्नत किस्में इस प्रकार से हैं-
किस्म | विमोचन वर्ष | पकने की अवधि (दिवस) | उपज (कि.ग्रा./हे.) | अन्य विशेषतायें | अन्य विशेषतायें |
---|---|---|---|---|---|
टी.के.जी. 308 | 2008 | 80-85 | 600-700 | 48-50 | तना एवं जड सड़न रोग के लिये सहनशील। |
जे.टी-11 (पी.के.डी.एस.-11) | 2008 | 82-85 | 650-700 | 46-50 | गहरे भूरे रंग का दाना होता है। मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील। गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त। |
जे.टी-12(पी.के.डी.एस.-12) | 2008 | 82-85 | 650-700 | 50-53 | सफेद रंग का दाना , मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील, गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त। |
जवाहर तिल 306 | 2004 | 86-90 | 700-900 | 52.0 | पौध गलन, सरकोस्पोरा पत्ती घब्बा, भभूतिया एवं फाइलोड़ी के लिए सहनशील । |
जे.टी.एस. 8 | 2000 | 86 | 600-700 | 52 | दाने का रंग सफेद, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील। |
टी.के.जी. 55 | 1998 | 76-78 | 630 | 53 | सफेद बीज, फाइटोफ्थोरा अंगमारी, मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सड़न बीमारी के लिये सहनशील। |
देश में कहां-कहां होती है तिल की खेती
देश में तिल की खेती महाराष्ट्र, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व तेलांगाना में होती है। इनमें सबसे अधिक तिल का उत्पादन उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में किया जाता है।
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तिल की खेती का उचित समय
उन्नत तिल की खेती साल में तीन बार की जा सकती है। खरीफ में इसकी बुवाई जुलाई माह में होती है। अद्र्ध रबी में इसकी बुवाई अगस्त माह के अंतिम सप्ताह से लेकर सितंबर माह के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल के लिए इसकी बुवाई जनवरी के दूसरे सप्ताह से फरवरी के दूसरे सप्ताह तक की जा सकती है। तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक Advanced Production Technology of Sesame उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक तिल मिटटी उर्वरक जलवायु रोग प्रबंधन फसल चक्र
उन्नत तिल की बोनी मुख्यतः खरीफ मौसम में की जाती है जिसकी बोनी जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक करनी चाहिये। ग्रीष्मकालीन तिल की बोनी जनवरी माह के दूसरे पखवाडे से लेकर फरवरी माह के दूसरे पखवाडे तक करना चाहिए ।
बीज को 2 ग्राम थायरम+1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम , 2:1 में मिलाकर 3 ग्राम/कि.ग्रा. फफूंदनाशी के मिश्रण से बीजोपचार करें। बोनी कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतारों में पौधो से पौधों की दूरी 10 से.मी. रखते हुये 3 से.मी. की गहराई पर करे ।
तिल की खेती के लिए खेत की तैयारी
उन्नत तिल की खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय इस बात का ध्यान रखें कि खेत में खरपतवार बिलकुल भी नहीं हो। खेत से खरपतवार पूरी तरह से निकालने के बाद खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। इसके बाद दो-तीन जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से करके खेत में पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें। वहीं 80 से 100 कुंतल सड़ी गोबर की खाद को आखिरी जुताई में मिला दें।
तिल की खेती के लिए बीज दर और बीजोपचार
छिडक़वा विधि से तिल की बुवाई के लिए 1.6-3.80 प्रति एकड़ बीज की मात्रा रखनी चाहिए। वहीं कतारों में बुवाई के लिए सीड ड्रील का प्रयोग करना चाहिए जिसके लिए बीज दर घटाकर 1-1.20 किग्रा प्रति एकड़ बीज दर पर्याप्त है। मिश्रित पद्धति में तिल की बीजदर एक किग्रा प्रति एकड़ से अधिक नहीं होनी चाहिए। रोगों से बचाव के लिए 2.5 ग्राम थीरम या कैप्टान प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधन करना चाहिए।
बीज की मात्रा एवं बुवाई:-
शाखा वाली किस्मों के लिये दो से ढाई किलोग्राम बीज की मात्रा एक हैक्टर क्षेत्रफल में बोने के लिये पर्याप्त होगी। शाखा वाली किस्मों जैसे टी. सी. 25 को कतारों में 35 सेंमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 15 सें.मी. रखते हुए बुवाई करें। शाखा रहित किस्मों में कतार से कतार की दूरी 30 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी. रखें क्योंकि शाखा रहित किस्मों के पौधे अधिक नहीं फैलते हैं। अतः इनके बीच में कम फासला रखा है। पौधों की संख्या प्रति हैक्टर अधिक होने के कारण ऐसी किस्मों के लिए 4-5 किलोग्राम बीज काफी रहता है।
तिल की बुवाई का तरीका / विधि
आमतौर पर तिल की बुवाई छिटकवां विधि से की जाती है। छिटकवां विधि से तिल की बुवाई करने पर निराई-गुड़ाई में समस्या आती है। इसलिए सबसे अच्छा ये हैं कि इसकी बुवाई कतारों में की जाए। इससे एक ओर निराई-गुड़ार्ई का काम आसान हो जाता है तो दूसरी ओर उपज भी ज्यादा प्राप्त होती है। बीजों का समान रुप से वितरण हो इसके लिए बीज को रेत (बालू), सूखी मिट्टी या अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 1: 20 के अनुपात में मिलाकर बोना चाहिए। कतार से कतार और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30×10 सेमी रखते हुए लगभग 3 सेमी की गहराई पर बीजों की बुवाई करनी चाहिए।
तिल की खेती में खाद एवं उर्वरक प्रयोग
खेत की तैयारी के समय 80 से 100 कुंतल सड़ी हुई गोबर की खाद अंतिम जुताई के समय मिला देना चाहिए। इसके साथ ही साथ 30 किलोग्राम नत्रजन, 15 किलोग्राम फास्फोरस तथा 25 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस,पोटाश एवम गंधक की पूरी मात्रा बुवाई के समय आधार खाद के रूप में तथा नत्रजन की आधी मात्रा प्रथम निराई-गुडाई के समय खड़ी फसल में देना चाहिए।
तिल की खेती में सिंचाई कार्य
वर्षा ऋतु में तिल की फसल को सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है। यदि बारिश नहीं हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। जब तिल की फसल 50 से 60 प्रतिशत तैयार हो जाए तब एक सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। यदि बारिश न तो आवश्यतानुसार सिंचाई करनी चाहिए।
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तिल की खेती में निराई-गुड़ाई कार्य
तिल की फसल में खरपतवारों का प्रकोप बना रहता है। इसके लिए फसल की प्रथम निराई-गुड़ाई का काम बुवाई के 15 से 20 दिन के बाद करना चाहिए। दूसरी बार 30 से 35 दिन के बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। इस समय निराई-गुडाई करते समय थिनिंग या विरलीकरण करके पौधों के आपस की दूरी 10 से 12 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए। वहीं खरपतवार नियंत्रण के लिए एलाक्लोर 50 ई.सी. 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर बुवाई के बाद दो-तीन दिन के अंदर प्रयोग करना चाहिए।
तिल की खेती का उचित उर्वरक प्रबंधन
तिल की खेती का उचित रोग प्रबंधन
तिल की फसल को सबसे अधिक नुकसान फिलोड़ी और फाईटोप्थोरा झुलसा रोग से होता है। फिलोड़ी की रोकथाम के लिए बुवाई के समय कूंड में 10जी. 15 किलोग्राम या मिथायल-ओ-डिमेटान 25 ई.सी 1 लीटर की दर से प्रयोग करना चाहिए तथा फाईटोप्थोरा झुलसा की रोकथाम हेतु 3 किलोग्राम कापर आक्सीक्लोराइड या मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकतानुसार दो-तीन बार छिडक़ाव करना चाहिए। तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक Advanced Production Technology of Sesame उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक तिल मिटटी उर्वरक जलवायु रोग प्रबंधन फसल चक्र तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक Advanced Production Technology of Sesame तिल उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक तिल मिटटी उर्वरक जलवायु रोग प्रबंधन
क्र | रोग का नाम | लक्षण | नियंत्रण हेतु अनुशंसित दवा | दवा की व्यापारिक मात्रा | उपयोग करने का समय एंव विधि |
1. | फाइटोफ्थोरा अंगमारी | प्रारंभ में पत्तियों व तनों पर जलसिक्त धब्बे दिखते हैं, जो पहले भूरे रंग के होकर बाद में काले रंग के हो जाते हैं।तिल की फाइटोप्थोरा बीमारी | थायरम अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी से बीजोपचार | नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) | नियंत्रण हेतु थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें।खड़ी फसल पर रोग दिखने पर रिडोमिल एम जेड (2.5 ग्रा./ली.) या कवच या कापर अक्सीक्लोराइड की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतर से छिड़काव करें। |
2. | भभूतिया रोग | 45 दिन से फसल पकने तक इसका संक्रमण होता है। इस रोग में फसल की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता हैं | गंधक | घुलनशील गंधक (2 ग्राम/लीटर) का छिड़काव करे | रोग के लक्षण प्रकट होने पर घुलनशील गंधक (2 ग्राम/ लीटर) का खडी फसल में 10 दिन के अंतर पर 2-3 बार छिड़काव करे। |
कुछ अन्य कृषक सहायक आर्टिकल
जीवाणु अंगमारी
3. | जीवाणु अंगमारी | पत्तियों पर जल कण जैसे छोटे-छोटे बिखरे हुए धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर भूरे रंग के हो जाते हैं। यह बीमारी चार से छः पत्तियों की अवस्था में देखने को मिलती हैं। | स्ट्रेप्टोसाइक्लिन | स्ट्रेप्टोसाइक्लिन(500 पी.पी.एम.)पत्तियों पर छिड़काव करें | बीमारी नजर आते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (500 पी.पी.एम.) और कॉपर आक्सी क्लोराईड (2.5 मि.ली./ली.) का पत्तियों पर 15 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें। |
तिल की खेती का उचित रोग प्रबंधन तना एवं जड़ पर्ण
4. | तना एवं जड़ सड़न | संक्रमित पौधे की जड़ों का छिलका हटाने पर नीचे का रंग कोयले के समान घूसर काला दिखता हैं जो फफूंद के स्क्लेरोषियम होते है। | थायरम अथवा ट्राइकोडरमा विरिडी | नियंत्रण हेतु थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी ( 5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें। | नियंत्रण हेतु थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा.) द्वारा बीजोपचार करें।खड़ी फसल पर रोग प्रारंभ होने पर थायरम 2 ग्राम+ कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम. इस तरह कुल 3 ग्राम मात्रा/ली. की दर से पानी मे घोल बनाकर पौधो की जड़ों को तर करें। एक सप्ताह पश्चात् पुनः छिडकाव दोहर |
5. | पर्णताभ रोग (फायलोडी) | फूल आने के समय इसका संक्रमण दिखाई देता हैं । फूल के सभी भाग हरे पत्तियों समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधे में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी -छोटी दिखाई देती हैं। | फोरेट | फोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर | नियंत्रण हेतु रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट करें तथा फोरेट 10 जी की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर के मान से खेत में पर्याप्त नमी होने पर मिलाये ताकि रोग फेलाने वाला कीट फुदका नियंत्रित हो जाये।नीम तेल (5मिली/ली.) या डायमेथोयेट (3 मिली/ली.) का खडी फसल में क्रमषः 30,40 और 60 दिन पर बोनी के बाद छिड़काव कर |
तिल की फसल में कीट नियंत्रण उपाय–
तिल की फसल में पत्ती लपेटक और फली बेधक कीट का प्रकोप अधिक होता है। इन कीटों की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ई.सी. 1.25 लीटर या मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के दर से छिडक़ाव करना चाहिए। तिल की उन्नत उत्पादन तकनीक Advanced Production Technology of Sesame तिल उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीक तिल मिटटी उर्वरक जलवायु रोग प्रबंधन
तिल पत्ती मोड़क एवं फल्ली बेधक कीट
इल्लीयां | फसल के प्रारंभिक अवस्था में इल्लीयां पत्तियों के अंदर रहकर खाती हैं। | प्रोफ़ेनोफॉस या निबौलीकाअर्क | प्रोफ़ेनोफॉस 50 ईसी 1 ली./हे. या निबौली का अर्क 5 मिली/ली. | 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें |
कली मक्खी | कली मक्खी प्रारम्भिक अवस्था में अण्डे देती है अण्डों से निकली इल्लियां फूल के अंडाशय में जाती है जिससे कलियां सिकुड़ जाती है | क्विनॉलफॉस या ट्रायजफॉस | क्विनॉलफॉस 25 ईसी (1.5मि.ली./ली. )या ट्रायजफॉस 40 ईसी | (1 मि.ली./ली.)500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें |
निबौली का अर्क बनाने की विधि
निबौंली 5 प्रतिशत घोल के लिये एक एकड़ फसल हेतु 10 किलो
निंबौली को कूटकर 20 लीटर पानी में गला दे तथा 24 घंटे तक गला रहने दे।
तत्पश्चात् निंबौली को कपड़े अथवा दोनों हाथों के बीच अच्छी तरह दबाऐं
ताकि निंबौली का सारा रस घोल में चला जाय।
अवषेश को खेत में फेंक दे
तथा घोल में इतना पानी डालें कि घोल 200 लीटर हो जायें।
इसमें लगभग 100 मिली. ईजी या अन्य तरल साबुन मिलाकर डंडे से चलाये
ताकि उसमें झाग आ जाये। तत्पश्चात् छिड़काव करें।
नींदा नियंत्रण
बोनी के 15-20 दिन पश्चात् पहली निंदाई करें तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालना चाहिये? निंदा की तीव्रता को देखते हुये दूसरी निंदाई आवश्यकता होने पर बोनी के 30-35 दिन बाद नत्रजनयुक्त उर्वरकों का खडी फसल में छिडकाव करने क पूर्व करना चाहिये?
रासायनिक विधि से नींदा नियंत्र
क्र | नींदा नाशक दवा का नाम | दवा की व्यापारिक मात्रा/है. | उपयोग का समय | उपयोग करने की विधि |
1 | फ्लूक्लोरोलीन (बासालीन) | 1 ली./है | बुवाई के ठीक पहले मिट्टी में मिलायें। | रसायन के छिडकाव के बाद मिट्टी में मिला दें। |
2 | पेन्डीमिथिलीन | 500-700 मि.ली./है. | बुआई के तुरन्त बाद किन्तु अंकुरण के पहले | 500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे। |
3 | क्यूजोलोफाप इथाईल | 800 मि.ली./है. | बुआई के 15 से 20 दिन बाद | 500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करे। |
आर्थिक आय – व्यय एवं लाभ अनुपात
उपरोक्तानुसार तिल की काष्त करने पर लगभग 5 क्व./ हे उपज प्राप्त होती है।
जिसपर लागत -व्यय रु 16500/ हे के मान से आता है।
सकल आर्थिक आय रु 30000 आती है।
शुद्ध आय रु 13500/ हे के मान से प्राप्त हो कर लाभ आय-व्यय अनुपात 1.82 मिलता है।
अधिक उपज प्राप्त करने हेतु प्रमुख बिंदु
- कीट एवं रोग रोधी उन्नत किस्मों के नामें टीके.जी. 308,टीके.जी. 306, जे.टी-11, जे.टी-12, जे.टी.एस.-8 ऽ बीजोपचार-बीज को 2 ग्राम थायरमऔर 1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम 2:1 में मिलाकर 3 ग्राम/कि.ग्रा.द्ध नामक फफूंदनाशी के मिश्रण से बीजोपचार करें।
- बोनी कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतारों में पौधों से पौधों की दूरी 10 से.मी. रखते हुये 3 से.मी. की गहराई पर करे ।
- अन्तवर्तीय फसल तिल और उड़द/मूंग 2:2, 3:3( तिल और सोयाबीन 2:1, 2:2 ) को अपनायें।
सिंचाई एवं जल प्रबंधन
तिल की फसल खेत में जलभराव के प्रति संवेदनशील होती है। अतः खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था सुनिश्चित करें? खरीफ मौसम में लम्बे समय तक सूखा पड़ने एवं अवर्षा की स्थिति में सिंचाई के साधन होने पर सुरक्षात्मक सिंचाई अवश्य करे।
- फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये सिंचाई हेतु क्रान्तिक अवस्थाओं यथा फूल आते समय एवं फल्लियों में दाना भरने के समय सिंचाई करे।
- बोनी के 15-20 दिन पश्चात् पहली निंदाई करें तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालना चाहिये । निंदा की तीव्रता को देखते हुये दूसरी निंदाई आवश्यकता होने पर बोनी के 30-35 दिन बाद नत्रजनयुक्त उर्वरकों का खडी फसल में छिडकाव करने के पूर्व करना चाहिये ।
तिल की कटाई
तिल की पत्तियां जब पीली होकर गिरने लगे तथा पत्तियां हरा रंग लिए हुए पीली हो जाए तब समझना चाहिए की फसल पक कर तैयार हो गई है। इसके बाद कटाई पेड़ सहित नीचे से करनी चाहिए। कटाई के बाद बंडल बनाकर खेत में ही जगह जगह पर छोटे-छोटे ढेर में खड़े कर देना चाहिए। जब अच्छी तरह से पौधे सूख जाएं तब डंडे अथवा छड़ की सहायता से पौधों को पीटकर या हल्का झाडक़र बीज निकाल लेना चाहिए।
प्राप्त उपज
अच्छी तरह से फसल प्रबंध होने पर तिल की सिंचित अवस्था में 400-480 किग्रा. प्रति एकड़ और असिंचित अवस्था में उचित वर्षा होने पर 200-250 किग्रा प्रति एकड़ उपज प्राप्त होती हैं।
तिल का बाजार भाव
जनवरी 2022 में बाजार में तिल का न्यूनतम मूल्य- 9025 रुपए है तथा अधिकतम मूल्य 9700 है जबकि इसका मॉडल रेट 9100 रुपए है।
तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2022
केंद्र सरकार की ओर से वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 7307 रुपए तय किया गया है। इस बार सरकार ने तिल के एमएसपी में 452 रुपए की बढ़ोतरी की है। बता दें कि पिछले वित्तीय वर्ष 2020-21 में तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 6855 था।
तिल की खेती से संबंधित प्रश्न और उत्तर
उत्तर – तिल की खेती का सबसे उचित समय वर्षा ऋतु में जुलाई का महीना अच्छा रहता है। हांलाकि इसकी खेती साल में तीन बार की जा सकती है।
उत्तर – तिल की खेती के लिए टी.के.जी. 308, जे.टी-11 (पी.के.डी.एस.-11), जे.टी-12 (पी.के.डी.एस.-12), जवाहर तिल 306, जे.टी.एस. 8, टी.के.जी. 55 आदि हैं।
उत्तर – तिल की फसल में पत्ती लपेटक और फली बेधक कीट का प्रकोप अधिक होता है। इन कीटों की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ई.सी. 1.25 लीटर या मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के दर से छिडक़ाव करना चाहिए।
उत्तर – तिल की फसल 85-90 दिनों (छोटी अवधि) की होती है। इसलिए इसके साथ किसान अन्य फसल भी किसान उगा सकता है।